Friday, June 19, 2020

साँस है जीवन की आस

प्रिय मित्रो ,


मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने के  बाद जिस एक चीज की अंतर्राष्ट्रीय स्तर  पर चर्चा हुई वह  है अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का उत्सव की तरह मनाया जाना। दुनिया के १२० से ज्यादा देशो में पिछले छै  सालो  योग दिवस मनाया जा रहा है । इस तरह योग के प्रचार के साथ ही भारत की  प्राचीन ज्ञान की धरोहर का लाभ पूरे विश्व को मिलने लगा है। इससे देश की छवि में इजाफा हुआ है और योग शिक्षकों की मांग  दुनिया में बढ़  गयी है। नवजवानो के लिए यह कैरियर  का  एक विकल्प बन गया है।  कोविड १९ से मुकाबला करने में  भी योग महती भूमिका निभा रहा है। 


योग के अनेक प्रकार है।  इसमें साँस जो जीवन शुरू होने के साथ जीवन के ख़तम होने तक निरंतर चलती है, को साधना योग का अत्यंत महत्वपूर्ण भाग माना जाता है। यह तब भी किया जा सकता है जब शारीरिक कारणों से योगाभ्यास करना संभव नही हो पा  रहा हो। अतः इस योग दिवस पर इस विषय की चर्चा करना सम - सामायिक  है। करोना के कारण इस वर्ष योग दिवस के सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों को निरस्त कर दिया गया है। इसलिए घर में बैठ कर ही योग करना है। आईये देखे केवल साँस को नियंत्रित करने की क्षमता का विकास और इसके उपयोग की समझ कैसे  बिना किसी अतरिक्त मेहनत के शरीर को स्वस्थ बनाये रखने में मददगार होती है। 


हमारा अनुभव है जब हम क्रोधित होते है तो साँस तेजी से चलती है यानी क्रोध और साँस चलने के बीच एक सम्बन्ध है। इसलिए क्रोध को नियंत्रित करने में साँस को नियंत्रित करना बड़ा प्रभावशाली तरीका है। इसी प्रकार इंटरव्यू में जाने के पहले लम्बी -लम्बी साँस लेकर और पानी पीकर जाने की सलाह दी जाती है ताकि मन और बुद्धि पर आपका नियंत्रण ठीक रहे और इंटरव्यू के पहले की घबराहट से छुटकारा मिल सके। आपको जान कर आश्चर्य होगा की शरीर में केवल श्वशन क्रिया ही (autonomic )  स्वयात्त क्रिया है अर्थात इसको आप अपनी इच्छा से नियंत्रित कर सकते है। वास्तव में साँस को अंदर लेने और बाहर निकलने की गति और तरीके के सही संयोजन से यह संभव हो जाता है। 


तनाव के समय आपकी साँस की रफ़्तार  १८-२४ प्रति मिनट होती है। इसकी पहचान आपकी तेज चलती हुई अनियमित साँस की गति से हो जाती है। तनाव के समय साँस की  गति औसत रफ़्तार  से  डेढ़ से दो गुनी तक हो सकती है। इस समय मनो दशा ऐसी रहती है मानो आप अपने शरीर को किसी लड़ाई या किसी विपदा से बचने के लिए तैयार कर रहे है। जीवन की ख़राब घटनाऔ के याद आने पर या कसरत वगैरह करने की तैयारी करने के पहले साँस में गति परिवर्तन  दिखाई देता है। लेकिन बिना किसी स्पष्ट  कारण के अगर साँस की गति बढ़ रही है  और अनियंत्रित  हो रही है , तो यह ब्लड प्रेशर के ज्यादा   या कम होने की, गुर्दा सम्बन्धी अथवा पाचन तंत्र सम्बन्धी बीमारी का लक्षण भी हो सकता है। 


जब आप अपना ध्यान किसी विषय या वस्तु पर केंद्रित करने की कोशिश करते है तो स्वशन गति १६-२० प्रति मिनट होती  है। आम तौर  पर इसकी गति  औसत गति के आस - पास ही रहती है।किन्तु इस समय ज्यादा नियंत्रित होती है। इस समय शरीर के सारे अंग अपनी साधारण प्रकृति के अनुसार कार्य करते है। और मनोदशा संतुलित स्थित में रहती है। इसको अच्छे तनाव की स्थित माना जाता है जिसमे आप  शारीरिक अथवा मानसिक कार्य  करके दिखाने की मनः स्थिति में होते है। और अपने आप को चुनौती देकर पहले से बेहतर अवस्था को प्राप्त काने  का प्रयास करते है।
इस तरह आप अपनी स्वशन क्रिया को नियंत्रित करके अपने स्वास्थ्य का ध्यान रख सकते है और अपने दैनिक कार्यो को सुचार रूप से चला सकते है। इसमें किसी प्रकार का कोई शारीरिक श्रम नहीं है और शरीर के अंगो खासतौर पर मन पर नियंत्रण आसान हो जाता है।  तो आईये इस योग दिवस पर अपनी सांसो को नियंत्रित करने का अभ्यास करके अपने जीवन को नई दिशा और ऊर्जा प्रदान करे।

आपका मन जब शांत है और दिमाग  निश्चिन्तित है तो साँस की रफ़्तार ६-१२  प्रति  मिनट होती है। जो  की साँस की औसत रफ़्तार १२ से २५ साँस पर  मिनट की लगभग आधी है।  इस जानकारी का उपयोग दिन में काम करते हुए या भागा दौड़ी करते हुए जब पांच मिनट में शरीर को आराम देना हो तो साँस की गति को नियंत्रित करके शरीर को और मन को आराम देना सम्भव हो जाता है।  इस अवस्था को  (parasympathetic )सहानुकम्पी मान  कर चिन्हित किया जाता है। यह क्रिया शरीर को आराम देने एवं भोजन को पचाने के लिए सर्वथा उपुक्त है। तंत्रिका तंत्र अर्थात नर्वस सिस्टम को दुरुस्त रखने के अलावा ब्लड प्रेशर का नियंत्रण ,शरीर की रोगो से लड़ने की क्षमता बढ़ाने एवं आराम दायक नींद में भी यह सहायक है। क्रोध ,चिड़चिड़ा पन और थकान जैसी समस्या का तुरन्त निदान करने में यह अत्यंत प्रभावी है।  

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाये। 


अजय सिंह "एकल "


 और अंत में 

 मोहब्बत और मौत की पसंद तो देखिये

 एक को दिल चाहिए और दूसरे को धड़कन 














Monday, June 8, 2020

देश की उन्नति के लिए करे श्रम और श्रमिकों का सम्मान

प्रिय दोस्तों ,

भारत में हम लोगो के  घरों में श्रमिक झाड़ू पोछा, बर्तन, बागवानी और कपड़े प्रेस इत्यादि का काम  करते हैं।आम तोर पर पुरुष श्रमिक बाहर  के और भारी काम  तथा    घर के अंदर के काम जिसमे खाना बनाने से लेकर बर्तन ,घर की सफाई इत्यादि  श्रमिक महिलाएं करती है।  यह घर में  तय समय पर आती हैं प्रायः  उनके साथ शिशु या छोटी बच्चे  भी होते है  जो श्रमिक की कार्यअवधि  में घर में  जमीन पर इधर उधर  खेलते रहते हैं।

घर  में काम पर आने  के बाद हम उन्हें चाय या कुछ बचा हुआ खाना दे देते हैं। जो वे महिलाएं वहीं जमीन पर बैठकर ही खा लेती हैं। कभी सफाई ठीक से नहीं हुई या काम में कुछ कमी रह गई तो उन्हें बुरी तरह डांट भी देते हैं। अगर किसी कारणवश वे काम पर नहीं आ पाती तो कई बार उनके पैसे भी काट लिए जाते हैं। हम यह भी जानने की कोशिश नहीं करते कि वह क्यों नहीं आ पाई?कहीं वह या उसके परिवार का कोई सदस्य बीमार तो नहीं था या कोई अन्य समस्या तो नहीं है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह तबियत ठीक न होने के बावजूद  भी हमारे यहां काम करने चली आई हो? कारण,आर्थिक तंगी से जूझ रहे लोगो को  अपनी पगार में  कटौती करवाना बहुत भारी पड़ता है।  ऊपर से यह भी डर कि  ना आने के कारण हम उसे काम से ही ना निकाल दें। अपनी और अपने परिवार की  आर्थिक सुरक्षा कैसे की जाये इस बारे में कोई ज्ञान व्  अनुभव इन्हे नहीं होता  है। देश के कानून भी इनको किसी तरह का सपोर्ट नहीं करते  है। हालांकि मोदी सरकार  ने कुछ ऐसे कानून अभी हाल में बनाये है जिससे अब इन्हे बीमा इत्यादि का लाभ और पेन्सन बगैरह मिलने की राह निकली है लेकिन अभी भी यह  पर्याप्त नहीं है। 


एक तरह से हमने उनके अस्तित्व और आत्मसम्मान को इग्नोर करना सीख लिया। ग्रहणी को छोड़कर परिवार के बाकी सदस्य उस किशोरी या महिला  और उसके साथ आए बच्चे को आमतौर पर  नोटिस नहीं करते। सिवाय तब के जब वह घर में रखा कोई सामान छूने की  कोशिश करता है जिससे उसके टूटने या खराब होने का डर रहता है।  इन लोगो को  अभिवादन करना या उनके अभिवादन करने का जवाब देना भी  दूर की बात है। ऐसा लगता है कि अभिवादन   की शिष्टता  से हम कोसों दूर हैं।

उनके जीवन में क्या उथल  पुथल है यह  वही जाने।उनके परिवार के बारे में जानने में  किसी को कोई दिलचस्पी  नहीं है ।  उनके बच्चों की पढ़ाई या उनकी उन्नति के बारे में किसी प्रकार के सहयोग के लिए कोई प्रयास आमतौर पर हम लोग  नहीं करते हैं। इन लोगो  पर कभी कभी चोरी इत्यादि का आरोप  बिना किसी सबूत के भी लगा देते हैं। बिल्डिंग के चौकीदार बाहर कूड़ा उठाने वाला , नाली साफ करने वाले कर्मचारी, घर की पुताई करने वाले और शेष कर्मचारी  भी हमारी बेरुखी से नहीं बचते। यही बर्ताव हम फल सब्जी बेचने वालों से भी करते हैं। छोटे दुकानदारों से अभद्र भाषा में बात करना  दाम सुनकर सीधे लूटने का आरोप लगा देना रोज की बात है । फिर उनके बताये दाम  को 30 - 40% कम कर के बोलते हैं। रिक्शा चालक के साथ भरी दोपहरी में भी 5 -10  रुपये का मोल भाव करने की भी आदत हमारी है। 

सड़क पर चलते ठेले वाले रिक्शे वाले का पहिया अगर किसी की मोटरसाइकिल या कार से छू जाए तो गाली देना तो छोटी बात है कई लोग हाथ भी उठा देते हैं।अधिकतर दुकान व्यवसाय और छोटी फैक्ट्री के मालिक अपने यहां काम करने वालों से ऐसा ही बर्ताव करते हैं। कई लोग वेटर को शायद मनुष्य ही नहीं मानते। अक्सर उन के हिस्से में डाट  और हिकारत ही आती है।

विदेशो में आम तोर पर जब आप दुकान में जाते है तो वहाँ बैठा सेल्स मैन आपको अभिवादन करता है और आप भी शिष्टाचारवश उसका जवाब मुस्करा कर देते है। विदेशो में ही क्यों यहाँ पर भी बड़ी दुकान में यदि आप जायेंगे तो वहाँ बैठा हुआ  दुकानदार या सेल्स परसन आपका मुस्करा कर अभिवादन करेगा और ज्यादातर लोग उसे इग्नोर भी नहीं करते है।  लेकिन छोटी दुकान या ठेले वाले और रिक्शावाले के साथ व्यहार करते समय इसको जान बूझ कर इग्नोर करने में अपनी शान और बड़ाई समझते है। 

यहाँ  यह बात समझना बहुत जरुरी है  कि शॉपिंग पहले एक सामाजिक प्रक्रिया है फिर आर्थिक गतिविधि है।हम दैनिक व्यवहार में शिष्टाचार बरतते हैं, खरीदार और विक्रेता दोनों पहले सामाजिक व्यक्ति हैं बाद में आर्थिक एजेंट। इन दिनों शहरों से पलायन को लेकर मजदूरों की व्यथा पर कई लोगों का हृदय द्रवित है। वे सोशल मीडिया पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं और सरकारों को कोस रहे हैं।उस जनसमुदाय को जिसके बारे में हम जानते थे कि वह यही कहीं  है, लेकिन आशा करते थे कि वह हमारी आंखों के सामने ना आए। यही वह  विशाल मानव समूह है  जिसके कारण हमारा  जीवन  और घर गृहस्थी  चलती रहती है। उनकी वजह से ही हमारा घर बन जाता है घर के अंदर पानी आ जाता है घर में सफाई भी हो जाती है। 

एक तरह से हम लोगो की  सुख समृद्धि में इस मानव समूह का बड़ा योगदान है और इसको इग्नोर करना कठिन तो है ही साथ ही अशिष्ट भी । मुझे खुशी है कि हमने उस विशाल जनसमुदाय के अस्तित्व को करोना कल में  नोटिस किया है।उम्मीद है कि उनके लौटकर आने पर अभी इसी समय से हम उनके अस्तित्व और गरिमा को सम्मान देंगे। उन्हें भी अपने जैसा इंसान समझेंगे।ठीक वैसे ही जैसे हम चाहते हैं कि दूसरा इंसान हमसे एक इंसान का बर्ताव करें। देश की उन्नति के लिए आवश्यक है की हम श्रम और श्रमिकों का सम्मान करना शुरू करे और इसे अपनी आदत में शुमार करे।  तभी हम देश की उन्नति सुनिश्चित कर पायंगे। 

अजय सिंह "एकल"

और अंत में 

हम उठाये फिरते है किश्ती को अपने सर पर 
शायद अगले मोड़ पर कहीं दरिया मिल जाये।  



श्रम का महत्त्व

दोस्तों ,
बहुत कम लोगो को पता है की यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका के १६वे राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन  के 
पिता जूते बनाते थे, जब वह राष्ट्रपति चुने गये तो अमेरिका के अभिजात्य वर्ग को बड़ी ठेस पहुँची।
सीनेट के समक्ष जब वह अपना पहला भाषण देने खड़े हुए तो एक सीनेटर ने ऊँची आवाज़ में कहा,
                   
मिस्टर लिंकन याद रखो कि  तुम्हारे पिता मेरे और मेरे परिवार के जूते बनाया करते थे! इसी के साथ सीनेट भद्दे अट्टहास से गूँज उठी! लेकिन लिंकन किसी और ही मिट्टी के बने हुए थे! उन्होंने कहा कि, मुझे मालूम है कि मेरे पिता जूते बनाते थे! सिर्फ आप के ही नहीं यहाँ बैठे कई माननीयों के जूते उन्होंने बनाये होंगे! वह पूरे मनोयोग से जूते बनाते थे, उनके बनाये जूतों में उनकी आत्मा बसती थी।

अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पण के कारण उनके बनाये जूतों में कभी कोई शिकायत नहीं आयी! क्या आपको उनके काम से कोई शिकायत है? उनका पुत्र होने के नाते मैं स्वयं भी जूते बना लेता हूँ और
यदि आपको कोई शिकायत है तो मैं उनके बनाये जूतों की मरम्मत कर देता हूँ! मुझे अपने पिता और  उनके काम पर गर्व है। सीनेट में उनके ये तर्कवादी भाषण से सन्नाटा छा गया और इस भाषण को अमेरिकी सीनेट के  इतिहास में बहुत बेहतरीन भाषण माना गया है और उसी भाषण से एक थ्योरी निकली Dignity of Labour (श्रम का महत्व) और इसका ये असर हुआ की जितने भी कामगार थे उन्होंने अपने पेशे को अपना सरनेम बना दिया जैसे कि - कोब्लर, शूमेंकर, बुचर, टेलर, स्मिथ, कारपेंटर,पॉटर आदि। यह परम्परा तभी से जारी है।
  
अमेरिका  में आज भी श्रम को महत्व दिया जाता है इसीलिए वो दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति है।
 वहीं भारत में जो श्रम करता है उसका कोई सम्मान नहीं है वो छोटी जाति का है नीच है। यहाँ जो 
बिलकुल भी श्रम नहीं करता वो ऊंचा है। जो यहाँ सफाई करता है, उसे हेय (नीच) समझते हैं और जो 
गंदगी करता है उसे ऊँचा समझते हैं।ऐसी गलत मानसिकता के साथ हम दुनिया के नंबर एक देश
 बनने का सपना सिर्फ देख सकते है, लेकिन उसे पूरा नहीं कर सकते।  जब तक कि हम श्रम को 
सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेंगे।जातिवाद और ऊँच नीच का भेदभाव किसी भी राष्ट्र निर्माण के लिए
 बहुत बड़ी बाधा है।

अजय सिंह "एकल "

                                                      और अंत में 

कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः।
गोजिद् भूयासमश्वजिद् धनञ्जयो हिरण्यगर्भ।।
         - अथर्ववेद ७.५२.२८
करो सब श्रम से सच्चा प्यार
करो सब श्रम की जय-जयकार।
कर्म में रहते अनवरत निरत
क्रिया में दक्ष दाहिना हाथ।
विजय का वरण करे कर वाम
सदा सोल्लास गर्व के साथ। 
मिले यश धन-सम्पत्ति अपार।।
मिले गौ, अश्व, भूमि, धन-खान
स्वर्ण से रहे भरा भण्डार।
मिले श्रम से अर्जित सम्पत्ति
करे सोना श्रम का श्रृंगार।
बहें वैभव की अक्षय धार।।
मेरे दाएँ हाथ में कर्म, बाएँ हाथ में विजय है। 
इन दोनों द्वारा हम गौ, अश्व, धन, भूमि एवं स्वर्ण

 आदि पाने में सफल हों।




Sunday, April 26, 2020

अब तूही बता तुझे क्या कहूं


अब तूही बता तुझे क्या कहूं
बीमारी कहूं कि बहार कहूं
पीड़ा कहूं कि त्यौहार कहूं
संतुलन कहूं कि संहार कहूं
अब तूही बता तुझे क्या कहूं

मानव जो उदंड था
पाप का प्रचंड था
सामर्थ का घमंड था
मानवता को कर रहा खंड खंड था
नदियां सारी त्रस्त थी
सड़के सारी व्यस्त थी
जंगलों में आग थी
हवाओं में राख थी
कोलाहल का स्वर था
खतरे में जीवो का घर था
चांद पर पहरे थे
वसुधा के दर्द बड़े गहरे थे

फिर अचानक तू आई
मृत्यु का खौफ लाई
संसार को डराई
विज्ञान भी घबराई
लोग यूं मरने लगे
खुद को घरों में भरने लगे
इच्छाओं को सीमित करने लगे
प्रकृति से डरने लगे

अब लोग सारे बंद हैं
नदिया स्वच्छंद हैं
हवाओं में सुगंध है
वनों में आनंद है
जीव सारे मस्त हैं
वातावरण भी स्वस्थ हैं
पक्षी स्वरों में गा रहे
तितलियां भी इतरा रही

अब तूही बता तुझे क्या कहूं

Taken from NBT

Thursday, April 23, 2020

मैंने सोचा न था

मैंने सोचा न था
एक दिन करोना यूँ आ जायेगा 
सब  लाक डाउन करा जायेगा 
मैंने सोचा न था मैंने सोचा ना था
मैंने पैसे कमाए मजे के लिए 
बंगले भी बनवाये मजे के लिए 
सब के सब धरे रह जायँगे 
न  मेरे न तेरे ये काम आएंगे 
मैंने सोचा न था मैंने सोचा ना था
करोना यूँ सबको सताएगा खुब 
दूरियाँ  शरीरों की बढ़ाएगा खुब 
कारे  सब खड़ी रहेंगी गैराज में
रहना  होगा सभी को औकात में  
मैंने सोचा न था मैंने सोचा ना था
जो चाहे वो  ना  खा पाएंगे 
होटलो में भी न जा पाएंगे 
एक दिन हम यूँ  मोहताज हो जायेंगे
मैंने सोचा न था मैंने सोचा ना था
बैंक में पड़े पैसे न काम आएंगे 
बंधू बान्धव भी न शकल दिखाएंगे 
रिश्ते नाते सभी बिखर जायेंगे  
मैंने सोचा न था मैंने सोचा ना था
ये करोना सभी को समझायेगा 
तब आदमी को आदमी समझ पायेगा 
नहीं तो ऐसी चोट दे जायेगा 
जिंदगी में पछतावा ही रह जाएगा 
मैंने सोचा न था मैंने सोचा ना था  

अजय सिंह 

Thursday, March 26, 2020

भारतीयों की ख़ुशी का सूचकांक

मित्रो,


दुनिया में लोगो की  ख़ुशी का सूचकांक संयुक्त राष्ट्र ने "वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स २०२०" घोषित कर दिया है। दुःख की बात है १५६ देशो  की सूची  में भारत १४४वे नंबर पर है। इससे भी ज्यादा दुःख की बात यह है की भारत पिछले साल १४०वें नंबर पर था। और एक साल में देश ४ नंबर नीचे आ गया है। इतना ही  नहीं भारत  पड़ोसी  देशो जैसे पाकिस्तान (६६वां )चीन (९४वां )नेपाल (९२वां ) तथा बंगला देश का नंबर १०७वां  से भी काफी पीछे है। इस लिस्ट में पहले १० स्थानों में न्यूजीलैंड को छोड़ कर बाकी  ९ देश यूरोप के है।  सबसे ऊपर फ़िनलैंड, डेनमार्क नार्वे तथा १० वें  नंबर पर  लक्जमबर्ग इत्यादि है। खुशहाली का सूचकांक जिन ६ मानकों पर तय की गया  है,  वे है -प्रति व्यक्ति जी डी पी ,सामजिक सहयोग , उदारता , भ्र्स्टाचार ,सामाजिक स्वतंत्रता और स्वास्थ्य। 

सस्टैनेबल डेवलॅपमेंट सोलूशन नेटवर्क, न्यूयॉर्क ने यह रिपोर्ट जारी की है और इसके लिए डेटा  साल २०१८ और २०१९ में जुटाया गया है। रिपोर्ट में इस बात पर भी खासतौर से गौर किया गया है की दुनिया भर में चिंता , उदासी, क्रोध सहित तमाम नकारात्मक भावनाये बढ़ी है। हैप्पीनेस इंडेक्स में टॉप २० में एशिया का कोई भी देश नहीं है। 

यदि दुनिया के शहरों में रहने वाले लोगो की खुशी की बात करे तो दिल्ली  पूरी दुनिया के शहरों की सूची में  नीचे से सातवें पायदान पर है।जबकि दिल्ली में रहने वाले लोगो की आशावादिता में नंबर नीचे  से पाँचवा है।  सवाल है की अधिकांश भारतीय खुश क्यों नहीं है इसकी तीन प्रमुख वजहें लगती है। पहली सरकार  के स्तर पर उनकी बुनियादी जरूरते मसलन शिक्षा, चिकित्सा और न्याय पूरी नहीं हो रही है। देश में आर्थिक प्रगति के बावजूद  समाज के विभिन्न वर्गों में आर्थिक समानता तेजी से बढ़ी है।  लखपति करोड़पति हो  गए है और करोड़पति अरबपति बन रहे है। साधारण आदमी का भी जीवन बदला है लेकिन  उसकी समस्याएं जैसे महंगाई ,बेरोजगारी ,रुपए का अवमूल्यन ,किसानो को उनके उत्पादों का उचित मूल्य निर्धारण न होना भ्र्स्टाचार ,कानून व्यस्था और महिलाओं के साथ अपराध इत्यादि की वजह से  देशवासियों की  खुशिंयो से दूरी बढ़ती जा रही है। हालाँकि देश का माध्यम वर्ग कुल आबादी का बड़ा हिस्सा है और इसको भी सामाजिक विषमताओं की मुश्किल  उठानी  पड़ती है लेकिन यह विडंबना ही कही जायगी की  इसको सरकारी सहायता के योग्य  भी नहीं माना जाता है। 
  
मोदी के नेतृत्व में देश ने पिछले पांच सालो में अनेक  मोर्चो पर अपने सूचकांकों में असाधारण नम्बर पाए है जैसे इज ऑफ़ डूइंग बिज़नेस  जिसमे भारत २०१८ में  ७७वे स्थान से २०१९ में  ६३वे स्थान  पर पंहुचा है।  वर्ल्ड इकनोमिक फोरम ने अपनी एक रिपोर्ट में माना  है की भारत पिछले पांच सालो में इन्क्लूसिव डेवलपमेंट इंडेक्स में 2.२९ प्रतिशत बढ़ा है। इन्क्लूसिव डेवलपमेंट इंडेक्स को भारत ने जी डी पी  के विकल्प के रूप में बनाया है। यहाँ यह बताना आवश्यक है इसकी आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि भारत का सामाजिक चरित्र और ताना बाना अमेरिका और यूरोप के देशो से बहुत फर्क है इसलिए जी डी पी भारत  जैसे विकासशील देशो की आवश्यकताओं पर  खरा नहीं उतरता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है की  भारत की आवश्यकताएँ  विकसित देशो के मानकों  से भिन्न होने के कारण  यू  एन ओ  तथा अन्य संस्थानों के मापदण्डो  पर इसीलिए खरा नहीं उतरता है बल्कि इसके कुछ और कारण  भी है।  

भारत के अधिकांश जनसँख्या के खुशहाल  न होने की एक बड़ी वजह समाज में समर्थ लोगो का चारित्रिक ह्रास  है। समाज के लोगो में  एक होड़ लगी है अपने लिए ज्यादा से ज्यादा साधन जुटाने की। आज प्रतिष्ठा उसे ही मिलती है, जो साधन संपन्न है। चारित्रिक विशेषतावों का भारतीय समाज में कुछ महत्व नहीं रह गया है।  पहले धर्म जैसे माध्यमों से लोगो को भौतिकता से दूर रह कर चरित्रवान रहने की शिक्षा मिलती थी, लेकिन आज धर्म के अगुआ खुद साधन जुटाने और इसका प्रदर्शन करते नजर आ रहे है। 



असल में प्रसन्नता और खुशहाली भीतर से आती है, लेकिन अफ़सोस कभी भारत दुनिया  का बौद्धिक  नेतृत्व  करता था लेकिन अब दिवालिया नजर आ रहा है। जब हमारे अंदर सब कुछ "लेने" के भाव से ज्यादा परिवार या समाज  को देने का भाव आएगा तभी हम प्रसन्न हो सकते है। तीसरी मुख्य वजह है हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली। इस शिक्षा प्रणाली ने डिग्री लेने और साधन संपन्न बनने को ही  अपना लक्ष्य बना रखा है।  किसी भी तरह पद और पैसा कमाना  इसका अंतिम लक्ष्य  है। देश के कार्पोरेट लीडर भी ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की नीतियाँ बनाने और उसको सिद्ध करने की होड़ में लगे  है और इसके लिए किसी भी तरह की बेईमानी  करने में संकोच नहीं कर रहे है।  पिछले एक साल में कम से कम ५-६ बड़े बड़े कारपोरेट कंपनियों में संचालन में हर तरह की गड़बड़ियां सामने आयी है। और यह कोई आश्चर्य नहीं की तमाम और कंपनियों  में इस तरह की गडबड़ी आने वाले समय में देखने को मिले। ऐसे में नई पीढ़ी के सामने यह आदर्श रखने वाला कोई नहीं है की जीवन में ख़ुशी और संतोष बड़ी चीज है और समाज से सिर्फ लेना नहीं बल्कि लेने और देने में सामंजस्य  बनाना जरुरी है। 



इतना ही नहीं इसमें हमारी भी भूमिका है। हमारे पास खुद को और परिवार को देने के लिए समय होना चाहिए। वरना ऐसी ऐसे आर्थिक विकास या साधन सम्पन्नता का क्या फायदा जिसका हम उपभोग भी न कर सके और विकास  हमें खुशी न दे सके न हमें किसी को खुशी देने लायक ही छोड़े। सरकारों के साथ ही यह हमारी भी जिम्मेदारी   है की समाज के अंतिम पायदान में खड़े व्यक्ति का जीवन स्तर ऊंचा उठाने में सहयोग करे। प्रधान मंत्री ने देश में करोना वाइरस जैसी महामारी की आपदा से निपटने के लिए देश की जनता का  आह्वान किया है की हर संपन्न व्यक्ति कम  से कम नौ गरीब  लोगो को भोजन और अन्य सहयोग अपने स्तर पर करे।  हमें यह समझना होगा की हमें स्थाई ख़ुशी तभी मिल सकती है जब समाज के सभी तबके खुश होंगे। 



अजय सिंह "एकल"





Wednesday, March 25, 2020

हाथ कब और कैसे धोयें

हाथ धोना  कब कब आवश्यक है :     

१.खाना पकाने के पहले, बीच  में और पकाने  के बाद 
२. खाना खाने के पहले और खाना कहने के बाद 
३. किसी भी बीमार आदमी के पास जाने के पहले और वापस आने के तुरंत बाद 
४. किसी भी चोट या खून निकलने वाली जगह पर दवा लगाने के पहले और बाद 
५. शौच या मूत्र  विसर्जन के बाद 
६. बच्चे को लंगोटी /नैपकिन पहनाने के पहले या शौच की सफाई करने के पहले और बाद में 
७. नाक खुजाने ,छींक या कफ को थूकने के बाद 
८. किसी भी जानवर को छूने ,खिलाने या उसका मल मूत्र इत्यादि को साफ़ करने के बाद 
९. किसी भी जानवर के घाव को छूने के पहले और दवा इत्यादि लगाने के बाद 
१०. कूड़ा या कोई अन्य गन्दा सामान छूने के बाद 
११. हाथ को साबुन से धोने की सुविधा न होने पर किसी अच्छे सेनेटाइजर सभी हाथ धो सकते है। 



हाथ कैसे धोना चाहिए :
१. नल में पानी  (गर्म या ठंडा ) चला कर हाथो को ठीक से गीला  करे और नल बंद कर दे। साबुन हाथ में लेकर ठीक से मले 
२. हथेलियों को रगड़ कर साबुन का झाग बनाये और अंदर तथा ऊपर झाग को फैलाये। अंगुलियों के बीच में तथा  नाखुनो को भी झाग लगा कर साफ़ करे। 
३. कम से कम बीस सेकेण्ड तक ठीक से हथेलिओं को रगड़े।  समय देखने के लिए आप मन में "हैप्पी बर्थ डे " गीत को दो बार गाये। 
४. चलते पानी के नीचे रगड़ कर हाथो को ठीक से धोएं ताकि साबुन साफ हो जाये। 
५. सूखे कपडे ,तौलिया से पोंछ कर या ड्रायर में सूखा कर हाथ को सूखा ले। 







पानी  पीने का नियम :

१. दिन भर में काम से कम ४-५ लीटर पानी पिये। 
२.सुबह उठ कर हल्का गुनगुना पानी निम्बू के साथ पीने से पेट ठीक साफ़ होता है और अनेक प्रकार की बीमारियों के होने की सम्भावना खतम हो जाती है। 
३. भोजन के ३० मिनट पहले और भोजन के काम से कम एक घंटे बाद पानी पीना चाहिए 
४. पानी की उचित मात्रा नियमित पीने से स्वास्थ्य ,पाचन क्रिया और शरीर का रंगरूप ठीक और चमक दार हो जाता है। 
५. पानी पीते  रहने से शरीर में ताकत बनी रहती है और थकान भी काम लगती है। 
६. पानी की सही मात्रा नित्य पिने से गुर्दे ठीक काम करते है और वजन भी नहीं बढ़ता है। 
७. शरीर में वसा और तरलता में संतुलन रहता है। 
८. व्यायाम करने के काम से कम ५-१० मिनट के बाद ही पानी पीना चाहिए। 
९. फ्रिज में रखे पानी को पीने से यथा संभव दूर रहे। हल्का गुनगुना या कमरे के तापमान वाला पानी पीये। 
१० पानी कभी भी खड़े होकर नहीं पीना चाहिए। 

 

Friday, February 21, 2020

हम लाये है तूफान से किश्ती निकाल के


एक तरफ माननीय   श्याम गुप्त और दूसरी ओर श्रीमती नेहा मित्तल,  एकल कुम्भ के   तीसरे दिन का पहला सत्र, बड़ा भाव पूर्ण दृश्य था। विषय था एकल की भविष्य की योजनाओ पर चर्चा करने  और अगले दस वर्षो का मानचित्र सभी कार्य कर्ताओं के सामने रखने का।  युवा नेतृत्व  ने एक पीपीटी के माध्यम से अपनी योजनाओं  के बारे में बताया। इसमें शामिल था चार लाख स्कूलों के माध्यम से गावों में संपर्क करने ,सौ से अधिक एकल आन व्हील द्वारा कम्प्यूटर लिट्रेसी का प्रसार,एक हजार एकल चिकित्सालय इत्यादि जैसे लक्ष्य  की अगले दस वर्षो में प्राप्ति  का ।  जैसे ही एकल युवा विभाग  की नेहा ने कहा की मुझे जो जिम्मेदारी मिली है तो ऐसा लग रहा है की मैं अर्जुन हूँ और अब मैं लक्ष्य प्राप्ति तक रुक नहीं सकती हूँ  ,तभी दूसरी ओर से श्याम जी ने घोषणा कर दी की मैं तो कृष्ण बनने को तैयार हूँ लेकिन नेहा यदि तुम अर्जुन बनने को तैयार तो यह समझ लो की यह आसान नहीं है।  इसके लिए तुम्हे घर परिवार से मोह  छोड़ना पड़ेगा और बिना  लक्ष्य प्राप्ति तक  रुकने की आज्ञा नहीं है यदि स्वीकार हो तो हाँ करना। नेहा मित्तल भी कहाँ रुकने वाली थी उन्होंने तुरंत अपनी सहमति दे दी। इसके अगले चरण में शुरू हुआ पुरानी अनुभवी पीढ़ी से जिम्मेदारियों का नयी ऊर्जावान और ज्ञानवान पीढ़ी को हस्तान्तरण का उत्सव। 

इस तरह वहां बैठे हुए सैकड़ो लोग प्रत्यक्ष दर्शी बने  श्रीमद भगवत गीता उस सन्देश  के क्रियान्वन के  जिसमे   श्री कृष्ण जी ने अर्जुन से  कहा  था 


इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्-गुह्यतरं मया ।
           विमृश्यैतदशेषेण  यथेच्छसि तथा कुरु ॥ १८.६३ ॥
(I have thus disclosed to you that knowledge which is the most confidential. Deliberate upon it and do as you wish.)
गीता का  वह  दृश्य तब  एकल कुम्भ में सजीव हो उठा   जब श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को कहा कि "अर्जुन गूढ़ से गूढ़ रहस्य का ज्ञान  मैंने  तुम्हे  दे दिया है अब तुम अपने विवेक का इस्तेमाल कर अपने का  कर्त्तव्य पालन करो " 

इस तरह  शुरू हुआ एकल अभियान का  एक नया अध्याय जब एकल के तीन पुरोधाओं में सबसे वरिष्ठ  एकल अभियान केंद्रीय कार्यकारणी के अध्यक्ष  श्री  बजरंग लाल बागड़ा जी ने अपनी जिम्मेदारी का ध्वज दिया श्री दुर्गेश मिश्रा जी को जिन्होंने दो वर्ष पूर्व ही सेवाब्रती बनने का निर्णय लिया।एक तरफ  विदेश जाने का आमंत्रण और दूसरी तरफ  एकल अभियान से जुड़ कर सेवाव्रती बनने का निश्चय।  दोस्त परिवार सब हतप्रभ और एक बार फिर इतिहास ने अपने को कुम्भ के  सैकड़ो प्रतिभागिओ के सामने  दोहरा दिया। ऐसा लगा मानो एक और अशोक सिंघल  जी सब प्रकार के भौतिक आकर्षण को छोड़ कर देश सेवा के लिए जीवन देने को तैयार है।   

दूसरा नंबर था एकल अभियान के राष्ट्रीय महा मंत्री श्री  माधवेन्द्र  सिंह  जी का, जिनकी  जिम्मेदारी  मिली श्रीमती सुमन दिगारी को। जिनका विवाह अभी पिछले महीने हुआ है। विवाह के कुल पंद्रह दिन बाद ससुराल से सीधे एकल कुम्भ में  आकर प्रतिभागी बनना और एक सप्ताह से भी अधिक समय लगा कर अपने दाईत्व का निर्वहन। धन्य है ऐसे सास और ससुर  तथा पति देव जिनको सौभाग्य से सुमन जैसी बहू और पत्नी मिली। जिसने अपने विवाह की मेहँदी लगे हाथो से एकल अभियान में प्रशिक्षण प्रमुख  जिम्मेदारी स्वीकार की। सुमन की माता और पिता श्री तो बहुत पहले से ही एकल अभियान के साथ जुड़े है। यह उनके पालन पोषण का ही शुभ परिणाम है की एकल अभियान के कार्यकर्ताओं के  प्रशिक्षण के लिये एक युवा नेतृत्व श्रीमती सुमन दिगारी के रूप में प्राप्त हो रहा है। 

अंत में श्री रमेश भाई सरावगी जिन्होंने अपनी युवा अवस्था यानि लगभग २५ वर्ष की आयु में ही जब एकल अभियान शुरू ही हो रहा था  कलकत्ता में माननीय श्याम गुप्त से  एक वचन लिया था की आप किसी नगर वासी से धन  नहीं  मांगेंगे अपितु आप समय मांगिये और धन आवश्यकता पूर्ति  की जिम्मेदारी मेरी है। काम कठिन था लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ की रमेश सरावगी अपने वादे में कमजोर पड़े हो। पिछले तीस वर्षो से लगातार देश भर के बड़े   उद्योगपतियो एवं  व्यापारिओं  को एकल के साथ जोड़ना  और उनकी प्रतिभा का अहर्निशं उपयोग एकल अभियान के लिए करना रमेश सरावगी के व्यक्तित्व की विशेषता रही है। रमेश सरावगी ने अपना  ध्वज यानि जिम्मेदारी दी संघ परिवार की एक युवा बेटी नेहा मित्तल को। नेहा के पिता स्व. रवी मानसिंगका  तीन दशकों पूर्व जब असम आंदोलन की आग में जल रहा था मुंबई आ कर बस गए थे। बड़ा व्यापार  समाज में प्रतिष्ठा और देश के लिए सबकुछ त्याग कर देने की तैयारी। नेहा ने अपनी पढाई अमेरिका से पूरी की और ब्याही गयी एक इंदौर के एक बड़े उद्योगपति परिवार में । लेकिन माता पिता की देश सेवा की  प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए अर्जुन बनने को तैयार और सहर्ष स्वीकार कर ली वह जिम्मेदारी जो बड़े बड़े लोग भी लेने को आसानी से तैयार नहीं होते। 

 सभी लोग  भावुक  हो रहे थे,प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे और सोच रहे थे की  श्याम जी ने जिस तरह   नेतृत्व की बागडोर युवा पीढ़ी को सौप कर उस पर पर अपना  विश्वास व्यक्त किया है यह वास्तव में राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ के आदर्श  पूज्‍य श्री गुरूजी का राष्‍ट्र को समर्पित  मंत्र "राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम”  आज श्याम जी ने पुनः चरितार्थ  कर दिया  । ‘इदं न मम’ अर्थात यह मेरा नही है, कुछ भी मेरा नहीं है यही भारतीय दर्शन है। और  वही दर्शन शाश्वत होता है जो प्राकृतिक होता है और इदं न मम ही प्राकृतिक है। तब  अर्जुन  की  जिम्मेदारी लेनेवाली बहन नेहा ने भी मानों  कहा 
अर्जुन उवाच |
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव || १८. ७३ ||
(अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।)

 मेरे मन में भी कौतुहल और आश्चर्य दोनों ही थे और मैं सोच रहा था की माननीय   श्याम  जी गुप्त  ने  भौतिक शास्त्र में  पोस्ट ग्रेजुएशन की  पढाई  विशेष योग्यता के साथ पूरी करने के बाद  युवा अवस्था में ही  अपना पूरा जीवन  देश सेवा के लिए लगाने का निर्णय लिया और राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ में प्रचारक निकल कर   विभिन्न जिम्मेदारियों  को  निभाते हुए एकल को पिछले ३० से भी अधिक वर्षो से अपना नेतृत्व देते हुए दुनिया का  सबसे बड़ा सेवा  संगठन  बना दिया है ।  जिनके सफल नेतृत्व के कारण केवल  देश में ही नहीं बल्कि दस से भी अधिक देशो में एकल अभियान की पहचान बनी है, आज बड़ी आसानी से एक बार फिर  आदर्शो की नयी उचाईयों को प्राप्त करने में सफल हुए  है। और युवा नेतृत्व को बागडोर दे कर उसका मार्गदर्शन करने का निर्णय ले कर  एक आदर्श परम्परा का निर्वाह किया है। इसके लिए  हम सब श्याम जी  के संपर्क में आकर देश की  सेवा के इस  प्रकल्प के साथ जुड़ कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे है। प्रभू से प्रार्थना है की श्याम जी को शतायु करे और आने वाले समय में उनका मार्गदर्शन और आशीर्वाद एकल अभियान को लम्बे समय तक प्राप्त होता रहे।  और हम सब मिलकर डॉ  हेडगेवार के स्वप्न का परम वैभवशाली राष्ट्र निर्माण करने में अपना योगदान करते रहे।   

अजय सिंह "एकल "    






     

Tuesday, December 17, 2019

धर्म है समाज सेवा


भारत की  सनातन संस्कृति में  सम्प्रदाय, समुदाय की अवधारणा है जिसमे हर व्यक्ति का योगदान होता है। इसके निर्माण में हर किसी का सक्रिय सहयोग ही धर्म है।  भीष्म पितामह ने भी धर्मोपदेश में कहा है 

अजीजीविषवो विद्यम यशः कामो समन्ततः।

ते  सर्वे नर  पापिष्ठाह  धर्मस्य   परिपंथिन:।।


अर्थात जो व्यक्ति अपने ज्ञान व क्षमताओं का उपयोग केवल अर्थ और काम के लिए करते हैं वे सभी घोर पापी एवं धर्म द्रोही हैं।इससे बचने के लिए धर्म और मोक्ष में भी अपने ज्ञान व क्षमता का उपयोग करना होगा, इसी को समष्टि, समुदाय, सम्प्रदाय एवं वर्तमान में समाज की सेवा कहा जाता है।धर्म व मोक्ष के रूप में समष्टि अभ्युदय हर मनुष्य का नैसर्गिक/धार्मिक दायित्व है।


पश्चिमी देश के एक मनोविज्ञानी अब्राहम मैसलो ने मनुष्य व्यहार (Human behavior ) का  एक  सिद्धांत १९४३ में प्रतिपादित किया था।  मैनेजमेंट विषय में पढ़ाया जाने वाला यह एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो यह बताता है कि किसी भी आदमी  का  व्यहार उसकी अपनी निजी  आवश्यकताओं के अनुसार बदलता है। हालाँकि इसका एक सामान्य क्रम है। इस क्रम में सबसे पहली आवश्यकता है,अपनी   शारीरिक  आवश्यक्ताओं  की  पूर्ति। जिसमे रोटी, कपडा  मकान इत्यादि के अलावा जैसे सोना,यौन क्रिया इत्यादि शामिल है। फिर आता है जीवन में आने वाली तरह-तरह की परेशानियों से मुक्ति के लिए सुरक्षा इसमें शामिल है जीवन यापन के लिए पर्याप्त धन,अच्छा स्वास्थ ,परिवार इत्यादि की प्राप्ति । इन दो आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद नंबर आता है दोस्तों, परिवारजनों के बीच आदर जिससे उसमे सामाजिक प्राणी होने का भाव जाग्रत होता है। दुनिया में ८० प्रतिशत लोग इन तीन आवश्यकताओं की पूर्ति में  ही पूरा जीवन  बिताते है। इस क्रम में अगला  नंबर आता  है  समाज में पहचान बनाने का एवं  प्रसिद्धि पाने का । और अंत  में आदमी  सेल्फ रिअलाइजेशन यानि मैं कौन हूँ ?  मेरा जन्म क्यों हुआ है इत्यादि प्रश्नों  के उत्तर पाना चाहता है , ताकि इस जीवन मरण से सदैव के लिए मुक्ति मिले और  मोक्ष प्राप्ति की और अग्रसर हो  सके । 

लेकिन पश्चिमी देशो की सोच से  इतर सनातन धर्म में सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद  समाज सेवा के लिए  समय और धन  देने को ही धर्म बताया गया है। गुरु नानक देव जी ने  अपनी कमाई का दशांश समाज सेवा के लिए देने की प्रेरणा दी है।  इसी  विषय पर  संत कबीर दास ने एक दोहे में सीख दी और कहा है :

पानी बाढ़े नाव में, जेब में बाढ़े दाम 

दोऊ हाथ उलीचिए यह सज्जन को काम। 

 समाज की सेवा सबका काम है नाकि  कुछ विशेष लोगो का। मनुष्य जीवन एक अवसर है मनुष्यता की सेवा करने  का । दरअसल जब हम यह कहते है की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो उसके पीछे जो भाव है वह यह है की मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। इसीलिए मनुष्य  समाज के  निर्माण में  अपना योगदान कर इसे  बनाता है और  फिर इसका उपभोग करता है। परन्तु समाज में देखने से पता चलता है की एक वर्ग अपना अधिकांश समय  अपने और परिवार के लिए धन उपार्जन में लगाता है  लेकिन जब संसाधनों के  उपभोग की बारी आती  है  तब सबसे ज्यादा उपभोग उन्ही के द्वारा होता है जिन्होंने इसके लिए सबसे कम योगदान किया है। चूँकि सामाजिक संरचना ऐसी है की संसाधनों के  उपभोग की सुविधा पैसे के बदले में आसानी से  उपलब्ध हो जाती अतः  यह  तरीका सरल है और कम समय में  उपभोग की सुविधा  प्राप्ति हो जाती है। इस व्यस्था  का ही  परिणाम है की समाज सेवा में लगे हुए लोग भौतिक सुख से तो वंचित रहते ही है साथ ही उनकी सेवा के परिणाम स्वरुप समाज में हुए सकारात्मक परिवर्तन के कारण  अपने योगदान के लिए जिस स्वाभाविक सम्मान के वे  अधिकारी  है वह भी मुश्किल से ही मिलता है। नतीजा, समाज सेवा को  जीविका  का विकल्प बनाये जाने के   लिए  प्रेरणा का अभाव रहता है। जिससे समाज में अनेक प्रकार की विकृतियाँ होती है और उसका खामियाजा किसी न किसी  रूप में समाज के सभी लोगो  को भुगतना पड़ता है। असल में समाज में सेवा करने वाले लोग दूध में चीनी की तरह है जिनका काम दिखता नहीं है किन्तु इसका अभाव जरूर महसूस होता है। 

समाज में गुणात्मक परिवर्तन के लिए इस व्यस्था में  परिवर्तन की  आवश्यकता है। नयी व्यस्था में जिसका जितना योगदान उतना उसका प्रतिफल के सिद्धांत को अमल में लाना चाहिए।  समाज  सेवा के लिए संकल्पित लोगो को साधारणतया  जीवन व्यापन के लिए मानधन  ऐसे  व्यापारिक प्रतिष्ठानों से प्राप्त होता है जिनकी सामाजिक कार्यो में रुचि हो अथवा  सामाजिक दाईत्व कानून का निर्वाह करने हेतु बड़े व्यापारिक  प्रतिष्ठान इस कार्य के लिए अपना योगदान करते है। सरकार के द्वारा इस  योगदान को कर में छूट देकर   सम्मानित किया जाता है।  इस तरह सामाजिक दाइत्वों का निर्वाह समाज की अलग अलग इकाईओं द्वारा होता है। 

समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यह व्यस्था ठीक है परन्तु  पर्याप्त नहीं है। दरअसल इस व्यस्था की एक बड़ी  खामी है की यह समाज के सभी लोगो को योगदान करने के लिए न प्रेरित करती है न मजबूर करती है। वैकल्पिक व्यस्था के रुप में जैसे वित्तीय विश्वसनीयता के प्रमाणी करण का क़ानूनी  प्रावधान है, उसी प्रकार  का प्रावधान सामाजिक प्रमाणी करण के लिए भी बनाये जाने की आवश्यकता है। जैसे एक बार वित्तीय सुविधाओं का दुरपयोग  करने पर दोबारा यह सुविधा उपलब्ध नहीं  होती है  उसी तरह समाज के संसाधनों का एक बार दुरुपयोग  किये  जाने के बाद उसी व्यक्ति द्वारा दोबारा दुरपयोग किये जाने की सम्भावना ख़तम हो जानी चाहिये। यह नियम समाज के लोगो को समाजोपयोगी  कार्यो को करने  के लिए प्रोत्साहित करेगा। यदि इसका प्रमाणी करण भी  हो  सके तो इसमें अपना योगदान करने के लिए हर व्यक्ति प्रेरित हो सकेगा। और संसाधनों के उपभोग के साथ ही निर्माण में भी  योगदान अपनी दिनचर्या में कुछ समय समाज के लिए देना है इसका निर्धारण करेगा।  साथ ही जैसे  अन्य दैनिक कार्य नियमित करने का नियम दिनचर्या में होता  है उसी तरह समाज निर्माण में  भी उसका योगदान सुनिश्चित  हो जायेगा। यह पहल  समाज निर्माण में  एक नई शुरुवात होगी।  

विद्यार्थी जीवन में एन सी सी और एन  एस एस  जैसे अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में साधारणतया काफी विद्यार्थियों की  भागीदारी रहती है। इसका मुख्य कारण है की इस तरह की भागीदारी नौकरी प्राप्ति में सहायक होती  है। इसलिए इसमें विद्यार्थियों की  उत्साह पूर्वक भागीदारी होती है।  पश्चिमी देशों में तो उच्च शिक्षा में  प्रवेश  के लिए  यह एक  आवश्यक शर्त है। आज आवश्यकता इस बात की है कि  यह प्रेरणा विद्यार्थी जीवन के बाद भी बनी  रहे।  

अतः यह आवश्यक है की ऐसा तन्त्र विकसित किया जाये जो सेवा के कर्तव्य पालन के लिए सभी लोगो को प्रेरित और प्रोत्साहित करे ताकि सबका समावेशी विकास सुनश्चित किया जा सकेगा। तभी हम आदर्श समाज की स्थापना का लक्ष्य प्राप्त करने की और अग्रसर हो सकेंगे।  

अजय सिंह "एकल"



 और अन्त मे  

मुझे डर नहीं दुर्जनो की सक्रियता का 
में डरता हूँ सज्जनो की निष्क्रियता से